लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
मर्द का लीला-खेल
(1)
आजकल औरतें सड़कों पर अख़बार बेच रही हैं। सिर्फ बच्चियाँ और किशोरियाँ ही नहीं जवान-जहान औरतें, यहाँ तक कि अधेड़ औरतें भी हॉकर का धंधा कर रही हैं। जीविका कमाने के लिए, मेहनत करनेवाली औरतों के तन-बदन पर एक अनोखी दीप्ति झलकती है। मैंने ऐसी दीप्ति, हाथ में फूल या अख़बार लिए, गाड़ियों सवारियों की तरफ भागती-दौड़ती औरतों में भी देखी है। मुमकिन है, उन औरतों को पैसे कम मिलते हों, सैकड़ों लोग, सैकड़ों तरह से उन औरतों को ठग रहे हों; वे औरतें अभाव और मोहताजी से भी मुक्त न हों, लेकिन इन्हीं सब वजहों से उनमें जो आत्मविश्वास भी पैदा होने लगा है, वह भी कितनी औरतों में होता है? समाज के ऊँचे-ऊँचे तबकों की औरतों की निगाहों में अजब-सा धुंधलापन देखा है। वे औरतें दूसरों पर ही निर्भर रहना चाहती हैं, अलस, बलहीन, अंधी, हीनतर और अवरुद्ध रहना चाहती हैं। सच तो यह है कि यह सब वे औरतें खुद नहीं चाहतीं, ऐसा चाहने के लिए उन लोगों को अवश किया जाता है। वह जो कहते हैं, काँटे से काँटा निकालना! पुरुषवादी समाज के लोग, औरत की समूची बल-क्षमता, साड़ी, गहना, लहसुन-प्याज की गृहस्थी, दो-चार कच्चे-बच्चे और चारदीवारों के कमरे देकर, खरीद लेते हैं। देश की अधिकांश पढ़ी-लिखी शिक्षित औरतें, इन सब तुच्छ विषय-वासनाओं के बदले में बिक जाती हैं।
एक अजीब-सी अक्षमता का दामन थामे, विकृत विक्रीत चीज़ की तरह, बस, पड़ी रहती हैं।
(2)
ढाका शहर के एक महिला मैजिस्ट्रेट को कत्ल कर दिया गया है। क्योंकि उसने लियाकत अली ख़ान नामक एक मैजिस्ट्रेट को ब्याह करने से इनकार कर दिया था। इसलिए मैजिस्ट्रेट शाहिदा को लियाकत के हाथों मरना पड़ा। व्याह से इनकार करने का नतीजा यह निकला। मेरा ख्याल है, लियाकत और शाहिदा में मित्रता या प्रेम जैसा कुछ था। इसीलिए लियाकत ने अपना हक इस्तेमाल किया, ज़ोर-ज़बर्दस्ती से काम लिया। मर्द जिस-तिस रिश्ते के बहाने पर जोर-जबर्दस्ती करते हैं। वह रिश्ता चाहे पिता का हो, भाई का हो, दोस्त का हो, पति या पुत्र का हो। उन लोगों ने तय कर लिया है कि औरत उनके हुक्म का अक्षर-अक्षर. पालन करेगी। अगर कोई पालन न करे; फर्ज़ करें बेटी अपने पिता की अवज्ञा करती है-तब बेटी अगर बालिग उम्र की नहीं है, तो पिता उसे धर-पकड़कर, जोर-जबरदस्ती उसका ब्याह कर देता है या कमरे में कैद कर देता है। वैसे बेटा अगर अवज्ञा करे, तो न तो उसका ज़ोर-जबर्दस्ती ब्याह किया जाता है, न उसे घर-बंदी बनाया जाता है; न उसके पैरों में बेड़ी पहनाई जाती है, बल्कि मध्य और उच्च-वित्त समाज में उस वागी बेटे को विदेश भेज दिया जाता है। यानी बागी बेटे का भविष्य और उजला बनाया जाता है; उसे आत्मनिर्भर बनाने का इंतज़ाम किया जाता है, जबकि बेटी को परनिर्भर बनाया जाता है यानी उसका सर्वनाश कर दिया जाता है। वैसे औरत अगर अनुशासनहीन न भी हो, तो भी उसके अभिभावक उसका सर्वनाश करने को हर वक्त तैयार बैठे होते हैं। हाँ, औरत अगर अनुशासनहीन हुई, आज्ञा-उल्लंघन करने वाली हुई, तो उसका सर्वनाश ज़रा जल्दी ही कर देते हैं।
भाई भी हमेशा बहनों पर ही जोर आजमाते हैं। गृहस्थी में भाइयों की फरमाइशें बजा लाने की जिम्मेदारी बहनों पर ही होती है। खुद न खाकर, भाइयों के लिए बचा रखना, भाई को मछली का बड़ा टुकड़ा खिलाकर, खुद मामूली-सा कुछ मुँह में डाल लेने का 'कल्चर' अभिभावक ही सिखा देते हैं। ऊपर से पिता की ज़मीन-जायदाद में, जो बूंद भर हिस्सा नसीब होता है, उस पर भी ज़ोर-ज़बर्दस्ती दखल जमाने में, मर्द बेजोड़ होते हैं। पति के 'हक़' और ज़ोर-ज़बर्दस्ती का ज़िक्र करना तो बिल्कुल ही फिजल है। मझे पक्का विश्वास है कि हर शादीशदा औरत को बखबी जानकारी है कि उन्हें किसकी उँगलियों के इशारे पर चलना है; उन्हें किसके हुक्म पर अंधी-बहरी और अपाहिज या लाचार होकर जिंदा रहना है! वैसे एकाध व्यतिक्रम भी होता है, लेकिन व्यतिक्रम कोई उदाहरण तो नहीं होता। जब पूरे समाज की ही यह हालत है, तो मित्र या प्रेमी या किसी और रिश्ते के बहाने ज़ोर-जबर्दस्ती भला क्यों न की जाए? लियाकत ने भी यह समझ लिया था कि वह मर्द है; वह जो भी कहे, शाहिदा को वह सब मानना ही होगा। शाहिदा ने उसकी बात नहीं मानी। उस मर्द की बात मानने से, उस औरत ने शायद इसलिए इनकार कर दिया, क्योंकि वह शिक्षित और स्वनिर्भर औरत थी, वह अपनी इच्छा-अनिच्छा का मोल चुकाने को तैयार थी। लेकिन लियाकत यह बात क्यों मानने लगा? वह अपनी शारीरिक ताकत, छुरे की ताकत और पुरुषांग की ताक़त न लगाता तो वह कैसा मर्द बच्चा है? मर्द तो ऐसा ख़ास जंतु है, जो अपने दाँत, नाखून और निगाहों की हिंस्रता के जरिए अपना पौरुष जाहिर करना चाहता है! मैंने हमेशा यही देखा है कि मर्दो में मनुष्यता काफी कम होती है। मनुष्यत्व और पुरुषत्व में शायद चिरकालीन विरोध होता है।
लियाकत अगर शाहिदा से ब्याह भी कर लेता, तो भी शाहिदा को तिल-तिल करके मरना ही होता। उसके भीतर के लगातार क्षरण को कोई देख भी नहीं पाता। लोग-बाग यही समझते कि क्या शानदार जोड़ी है! लोग-बाग तो आज भी आँखों के नीचे झलकते सियाह धब्बे या उसकी पीठ पर मार के नीले निशान सँजोए औरत को बेझिझक सुखी ही समझते। लियाकत असली मर्द-बच्चा निकला! उसने मों जैसा ही काम किया। बेहद ठंडे दिमाग से, उसने उस औरत का खून कर डाला।
मुनीर को अगर फाँसी हो गई, तो मर्दो को अच्छा सवक़ मिलेगा। लेकिन, लियाक़त को क्या कोई सबक़ मिला? नहीं, कोई सबक़ नहीं मिला। मेरा ख्याल है, दनिया में किसी भी मर्द को, कभी, कोई सबक नहीं मिलेगा। मौका मिलते ही, वे लोग औरत की गर्दन पर छरा बिठा देते हैं। ऐसे लोगों को फाँसी तो क्या, इन्हें नंगा करके गले में रस्सी बाँधकर सडकों पर सरे-आम घमाना चाहिए ताकि हर इंसान उनकी परिणति देखे. ताकि इन लोगों का सडा-गला गोश्त सियार-चील खा डालें। ऐसे लोगों को फाँसी पर लटका देना, तो एक तरह से उन लोगों को बचा लेने जैसा है। दो-एक लोगों के अलावा, किसी ने भी नहीं देखा, किसी ने भी नहीं समझा, लियाक़त जैसे बदमाश का कलेजा भी बूंद भर भी नहीं काँपा।-ना! फाँसी से काम नहीं चलेगा, जघन्य इंसानों के लिए जघन्य से जघन्य सज़ा का इंतजाम करना चाहिए। इस सज़ा के लिए आंदोलन न करना पड़े। अदालत के दरवाजे तक जाकर, नारेबाज़ी न करना पड़े। आखिर कितने अत्याचारियों के लिए महिला-परिषदों को चीखना-चिल्लाना होगा? ये लोग तो देश के चप्पे-चप्पे में अत्याचार बरसा रहे हैं। इन अत्याचारियों की गिनती क्या उँगलियों की पोरों पर की जा सकती है? खूनी मर्द क्या इक़बाल, मुनीर, या लियाकत ही हैं? अफ़जल, शफीक, रियाजुद्दीन, सिराज, खोका, जुल्मत, वगैरह ने क्या खून नहीं किया? आप लोग तलाश कर देखें, खून इन लोगों ने भी किया है!
बासाबो में नीलोफर नामक एक औरत का उसके पति ने क़त्ल कर दिया। वह पति इन दिनों बहाल-तबीयत घूमफिर रहा है! उसे कौन पकड़नेवाला है? उसके पास पैसों का ज़ोर है; सबसे ज़्यादा सरकार का ज़ोर है! जिसके पास सरकार का ज़ोर है, वह चाहे जितना भी बड़ा चोर-डाकू-बदमाश या खूनी हो, वह ठीक पार पा जाता है। सरकार ने अपने प्यारे बंदों के लिए, बड़े प्यार से एक पुलिया बना रखी है। अल्लाहताला के पुलसेरात से कहीं ज़्यादा मज़बूत है यह पुलिया!
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- आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
- मर्द का लीला-खेल
- सेवक की अपूर्व सेवा
- मुनीर, खूकू और अन्यान्य
- केबिन क्रू के बारे में
- तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
- उत्तराधिकार-1
- उत्तराधिकार-2
- अधिकार-अनधिकार
- औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
- मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
- कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
- इंतज़ार
- यह कैसा बंधन?
- औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
- बलात्कार की सजा उम्र-कैद
- जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
- औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
- कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
- आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
- फतवाबाज़ों का गिरोह
- विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
- इधर-उधर की बात
- यह देश गुलाम आयम का देश है
- धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
- औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
- सतीत्व पर पहरा
- मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
- अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
- एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
- विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
- इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
- फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
- फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
- कंजेनिटल एनोमॅली
- समालोचना के आमने-सामने
- लज्जा और अन्यान्य
- अवज्ञा
- थोड़ा-बहुत
- मेरी दुखियारी वर्णमाला
- मनी, मिसाइल, मीडिया
- मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
- संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
- कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
- सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
- 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
- मिचलाहट
- मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
- यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
- मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
- पश्चिम का प्रेम
- पूर्व का प्रेम
- पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
- और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
- जिसका खो गया सारा घर-द्वार